PSEB Class 10 th Hindi Notes पाठ 3 नीति के दोहे

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नीति के दोहे का संक्षेप सारांश:


नीति के दोहे

परिचय:
“नीति के दोहे” पारंपरिक भारतीय काव्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, जो नैतिकता और जीवन के मूल्यों को संक्षेप में प्रस्तुत करते हैं। ये दोहे संपूर्ण समाज में नैतिक आचरण को बढ़ावा देने के लिए उपयोगी होते हैं।


1. नैतिकता का महत्व

  • मूल्य: नैतिकता समाज की नींव को मजबूत करती है और सामूहिक कल्याण को बढ़ावा देती है।
  • गुण: ईमानदारी, विनम्रता, करुणा और संतोष जैसे गुण नैतिक जीवन का आधार हैं।

2. मुख्य विषय और शिक्षाएँ

  • ईमानदारी: सत्यनिष्ठा और प्रामाणिकता को बनाए रखना।
  • विनम्रता: अहंकार को दूर रखकर सरल और सहज बने रहना।
  • करुणा: दूसरों के प्रति दया और सहानुभूति दिखाना।
  • ज्ञान: समझदारी से निर्णय लेना और अनुभवों से सीखना।
  • संतोष: लालच से बचकर सादगी में खुश रहना।

1. कहि रहीम सम्पति सगे, बनत बहुत बहु रीत।

विपत कसौटी जे कसे, सोई साँचै मीत।।

प्रसंग:
यह दोहा रहीम द्वारा रचित “नीति के दोहे” से लिया गया है। इसमें कवि ने सच्चे मित्र के लक्षण बताए हैं।

व्याख्या:
रहीम जी कहते हैं कि जब हमारे पास धन-दौलत होती है, तो बहुत से लोग हमारे मित्र बन जाते हैं। परंतु जब हम कठिनाई में होते हैं, तब जो हमारे साथ खड़ा रहता है, वही सच्चा मित्र होता है।

विशेष:

  • कठिनाई में जो साथ दे, वही सच्चा मित्र है।
  • सरल, सरस और सहज भाषा में लिखा गया है।
  • इसमें अनुप्रास अलंकार का प्रयोग है।

2. एकै साधे सब सधै, सब साधै सब जाय।

रहिमन सींचे मूल को, फूलै फलै अधाय।।

प्रसंग:
यह दोहा रहीम जी की रचना है। इसमें कवि ने एकनिष्ठ भाव से एक की आराधना करने पर बल दिया है।

व्याख्या:
कवि कहते हैं कि यदि हम एक ईश्वर की आराधना करें, तो सब कुछ सफल हो जाता है। यदि हम सभी की आराधना करने की कोशिश करें, तो कुछ भी नहीं मिलता। जैसे जड़ को सींचने से पूरा पेड़ फलता-फूलता है।

विशेष:

  • एक लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करने से सफलता मिलती है।
  • भाषा सरल और भावानुकूल है।

3. तरुवर फल नहिं खात हैं, सरवर पियहिं न पान।

कहि रहीम पर काज हित, सम्पति संचहिं सुजान।।

प्रसंग:
इस दोहे में रहीम जी ने परोपकार की महत्ता बताई है।

व्याख्या:
कवि कहते हैं कि पेड़ अपने फल नहीं खाते और तालाब अपना जल नहीं पीते। सज्जन लोग भी दूसरों की भलाई के लिए धन संचय करते हैं।

विशेष:

  • धन का सदुपयोग दूसरों की भलाई के लिए करना चाहिए।
  • भाषा सरल और सरस है।

4. रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि।

जहाँ काम आवे सुई, का करे तरवारि।।

प्रसंग:
इस दोहे में कवि ने छोटी वस्तु के महत्व को बताया है।

व्याख्या:
रहीम जी कहते हैं कि बड़े को देखकर छोटे को नहीं छोड़ना चाहिए। जहाँ सुई काम आती है, वहाँ तलवार नहीं आती।

विशेष:

  • छोटी वस्तु का भी महत्व होता है।
  • भाषा सरल और भावानुरूप है।

5. कनक-कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय।

बह खाये बौरात है, इहिं पाये बौराय।।

प्रसंग:
यह दोहा बिहारी जी की रचना है, जिसमें उन्होंने धन और वैभव के नशे को बताया है।

व्याख्या:
कवि कहते हैं कि सोने का नशा धतूरे के नशे से सौ गुना अधिक होता है। जैसे धतूरा खाने से नशा होता है, वैसे ही सोने को पाकर नशा हो जाता है।

विशेष:

  • धन पाकर मनुष्य अहंकारी बन जाता है।
  • भाषा ब्रज और यमक अलंकार है।

6. इहि आशा अटक्यो रहै, अलि गुलाब के मूल।

होइहै बहुरि बसन्त ऋतु, इन डारनि पै फूल॥

प्रसंग:
यह दोहा बिहारी जी द्वारा रचित है। इसमें कवि ने आशावादी रहने का संदेश दिया है।

व्याख्या:
कवि कहते हैं कि भंवरा गुलाब की जड़ के पास इस आशा में रहता है कि बसंत ऋतु फिर आएगी और फूल खिलेंगे। मनुष्य को भी इसी तरह आशावादी रहना चाहिए।

विशेष:

  • आशावादी बने रहना चाहिए।
  • भाषा सरल और भावानुरूप है।

7. सोहतु संगु समानु सो, यहै कहै सब लोग।

पान पीक ओठनु बनैं, नैननु काजर जोग।।

प्रसंग:
यह दोहा बिहारी जी द्वारा रचित है। इसमें समान स्वभाव वालों का संग बतलाया है।

व्याख्या:
कवि कहते हैं कि जैसे पान की पीक ओंठों पर और काजल आँखों में शोभित होता है, वैसे ही समान स्वभाव वाले लोगों का साथ सदा बना रहता है।

विशेष:

  • समान स्वभाव वाले लोगों का संग बना रहता है।
  • भाषा ब्रज और अनुप्रास अलंकार है।

8. गुनी गुनी सबकै कहैं, निगुनी गुनी न होतु।

सुन्यौ कहूँ तरू अरक तें, अरक-समान उदोतु॥

प्रसंग:
इस दोहे में बिहारी जी ने गुणहीन व्यक्ति की असमर्थता बताई है।

व्याख्या:
कवि कहते हैं कि गुणहीन को गुणी कहने से वह गुणवान नहीं बनता। जैसे आक के पेड़ को सूर्य नहीं कहा जा सकता।

विशेष:

  • गुणहीन को गुणी कहने से वह गुणवान नहीं बनता।
  • भाषा सरल और अनुप्रास अलंकार है।

9. करत करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान।

रसरी आवत जात ते, सिल पर परत निसान।।

प्रसंग:
यह दोहा वृन्द जी द्वारा रचित है, जिसमें अभ्यास की महत्ता बताई गई है।

व्याख्या:
कवि कहते हैं कि अभ्यास करने से मूर्ख भी विद्वान बन सकता है। जैसे रस्सी के घिसने से पत्थर पर निशान पड़ जाते हैं।

विशेष:

  • अभ्यास से सफलता मिलती है।
  • भाषा सरल और पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।

10. फेर न ह्वै है कपट सों, जो कीजै व्यापार।

जैसे हाँडी काठ की, चढ़े न दूजी बार।।

प्रसंग:
यह दोहा वृन्द जी द्वारा रचित है, जिसमें छल-कपट का व्यवहार बताया गया है।

व्याख्या:
कवि कहते हैं कि छल-कपट का व्यवहार बार-बार नहीं चलता। जैसे काठ की हांडी एक बार चढ़ती है, दुबारा नहीं।

विशेष:

  • छल-कपट का व्यवहार टिकाऊ नहीं होता।
  • भाषा सरल और भावानुरूप है।

11. मधुर वचन ते जात मिट, उत्तम जन अभिमान।

तनिक सीत जल सों मिटे, जैसे दूध उफान।।

प्रसंग:
यह दोहा वृन्द जी द्वारा रचित है, जिसमें मधुर वाणी का प्रभाव बताया गया है।

व्याख्या:
कवि कहते हैं कि मधुर वाणी से अभिमानी का गर्व शांत किया जा सकता है, जैसे ठंडे पानी से उबलते दूध का उफान शांत हो जाता है।

विशेष:

  • मधुर वाणी का प्रभाव शक्तिशाली होता है।
  • भाषा सरल और भावानुरूप है।

12. अरि छोटो गनिये नहीं, जाते होत बिगार।

तृण समूह को तनिक में, जारत तनिक अंगार।

प्रसंग:
यह दोहा वृन्द जी द्वारा रचित है, जिसमें छोटे शत्रु का महत्व बताया गया है।

व्याख्या:
कवि कहते हैं कि छोटे शत्रु को भी कमजोर नहीं समझना चाहिए। जैसे तिनकों के ढेर को एक छोटा अंगारा भी जला देता है।

विशेष:

  • छोटे शत्रु को भी कमजोर नहीं समझना चाहिए।
  • भाषा सरल और भावानुरूप है।

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